कर्णपिशाचिनी ! जानिये सही स्वरूप
कर्णपिशाचिनी कोई बाहरी सत्ता नहीं,
बल्कि अंत:श्रवण चेतना का रूप है —
जहाँ साधक बाहरी शब्दों से नहीं,
बल्कि भीतर की नाद-ध्वनि से जुड़ता है।
कर्णपिशाचिनी साधना का नाम सुनते ही बहुत लोग डर जाते हैं
लेकिन सच यह है कि यह साधना भूत-प्रेत बुलाने के लिए नहीं, बल्कि
श्रवण-शक्ति (inner hearing) और अंतर्ज्ञान को तीव्र करने की एक प्राचीन तांत्रिक प्रक्रिया है।
मैं यहाँ इसका सिद्धान्तात्मक और सुरक्षित आध्यात्मिक अर्थ ही समझाऊँगा — किसी भी आत्मा-आह्वान या जोखिमभरी विधि की चर्चा नहीं करूँगा।
1. कर्णपिशाचिनी कौन है
“कर्ण” = कान, “पिशाचिनी” = सूक्ष्म देवी या ऊर्जा।
तंत्र के अनुसार वह एक सूक्ष्म शक्ति है जो साधक के कर्ण (श्रवण-चक्र) के माध्यम से संदेश या ज्ञान प्रवाहित करती है।
यह चेतना का वह रूप है जो अंत:श्रवण (clairaudience) या “शब्द रूप भैरवी” के रूप में अनुभव हो सकता है।
2. आध्यात्मिक उद्देश्य
• मन की सूक्ष्म तरंगों को सुनना (अंतर ध्वनि नाद)
• ध्यान के दौरान अंतर्ज्ञान को जागृत करना
• शब्द और ध्वनि के ऊर्जात्मक स्वरूप को जानना
• गुरु-तत्त्व या देवी के संकेत को श्रवण चेतना में ग्राह्य करना
3. भीतरी रूप (सुरक्षित ध्यान-विधि)
किसी भी “आत्मा से संवाद” वाले प्रयोग में मत जाना। यहाँ जो दिया जा रहा है वह केवल ध्यान-योगिक अर्थ में सुरक्षित अभ्यास है।
1. स्थान: शांत कमरा, रात्रि या भोर का समय।
2. अवस्था: आसन में बैठो, आँखें बंद, कंधे ढीले।
3. श्वास: धीरे-धीरे गहरी साँस लो, ध्यान कानों पर ले जाओ।
4. भाव: “मुझमें एक सूक्ष्म ध्वनि है जो हर क्षण बोल रही है, मैं सुन रहा हूँ।”
5. अनुभव: कभी कभी भीतर घंटी, नाद, या सूक्ष्म कंपन सुनाई दे सकते हैं — वही ‘कर्णपिशाचिनी’ का अंत:श्रवण रूप है।
4. मंत्र (शुद्ध रूप में)
ॐ ह्रीं कर्णपिशाचिन्यै नमः ॥
मंत्र को मौन जप के रूप में 1000(10माला)बार अभ्यास हेतू कर सकते हो, साथ में ध्यान कानों पर रखो।
कोई कल्पना या आह्वान मत करो — सिर्फ ऊर्जा को ध्यान रूप में महसूस करो।
5. सावधानियाँ
• गुरु या सुरक्षित ध्यान-शिक्षक के बिना कभी बाह्य अनुष्ठान मत करो।
• किसी “प्रेत-संपर्क” या “दृश्य संवाद” की इच्छा न रखो। वह मार्ग असंतुलित कर सकता है।
• अगर ध्यान के दौरान भय या भ्रम हो तो तुरंत साँस गहरी लो और ध्यान तोड़ दो।
6. सच्चा फल
जब कर्णपिशाचिनी ऊर्जा संतुलित होती है तो साधक में —
• अंतर्ज्ञान तेज़ होता है
• मन की शब्द-तरंगें स्पष्ट होती हैं
• वाणी में सत्य और गंभीरता आती है
• भीतर “नाद-योग” का अनुभव प्रकट होता है
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