माहे मोहर्रम: अश्कों और अकीदत में डूबी रही तीसरी तारीख, मातम और मजलिसों से गूंजा प्रयागराज

प्रयागराज में तीसरी मोहर्रम को मजलिसें, नौहे और जुलूसों के साथ करबला के शहीदों को याद किया गया

माहे मोहर्रम: अश्कों और अकीदत में डूबी रही तीसरी तारीख, मातम और मजलिसों से गूंजा प्रयागराज
मातम और मजलिसों से गूंजा प्रयागराज

प्रयागराज। माहे मोहर्रम की तीसरी तारीख को शहर पूरी तरह अकीदत और ग़म के रंग में डूबा रहा। सुबह से देर रात तक मुस्लिम बहुल इलाकों चक ज़ीरो रोड, घंटाघर, सब्ज़ी मंडी, शाहगंज, बरनतला, पत्थर गली, रानीमंडी, करैली, करैलाबाग़, बख्शी बाज़ार और दरियाबाद में मजलिसें, नौहे और मातमी जुलूसों के ज़रिए शहीद-ए-कर्बला इमाम हुसैन और उनके 71 साथियों की कुर्बानी को याद किया गया।

चक ज़ीरो रोड के आलमचंद अज़ाखाने में आयोजित मजलिस को मौलाना अख्तर हुसैन साहब क़िबला ने संबोधित किया। उन्होंने करबला के शहीदों की कुर्बानी का दर्दभरा ज़िक्र करते हुए सिराते मुस्तकीम (सही रास्ते) पर चलने की तालीम दी। मजलिस के दौरान जैसे ही करबला की शहादत का मार्मिक वर्णन किया गया, वहां मौजूद लोगों की आंखों से आंसुओं की धार बह निकली।

इस मौके पर अन्जुमन ग़ुन्चा-ए-क़ासिमया के नौहाख्वानों – नेयाज़ुल हसन, हाशिम बांदवी, जिब्रान, सैय्यद हैदर मेंहदी, यासिर मंज़ूर, आबिद हुसैन, नाज़िर हुसैन, मिर्ज़ा शीराज़, मिर्ज़ा राहिब, कैफ, अलमदार, हसनैन, हुसैन अस्करी और मोहम्मद सादिक ने ग़मगीन नौहे पढ़े, जिससे माहौल पूरी तरह मातमी हो गया।

दरियाबाद से निकला क़दीमी अलम व ताबूत का जुलूस
दरियाबाद स्थित क़दम रसूल से तीसरी मोहर्रम को परंपरागत अलम, ताबूत और ज़ुलजनाह का जुलूस निकाला गया। यह जुलूस इमामबाड़ा हुसैन अली खान तक गया, जहां नौहों और मातम के साथ देर रात तक धार्मिक रस्में निभाई गईं। अन्जुमन हाशिमया दरियाबाद के नौहाख्वान ज़िया अब्बास, अर्शी, यासिर सिबतैन समेत अन्य अकीदतमंद भी जुलूस में शामिल रहे।

वहीं, इमामबाड़ा हैदर हुसैन बड़ा घर सैय्यदवाड़ा में मजलिस को मौलाना सज्जाद हैदर साहब ने खिताब किया। उन्होंने करबला के शहीदों की कुर्बानी से मिलने वाले सबक पर प्रकाश डाला। इस मौके पर मौलाना जावेद साहब, हसन नक़वी, मशहद अली खां, शफक़त अब्बास पाशा, मोहम्मद अहमद गुड्डू, पार्षद फसाहत हुसैन, सैय्यद मोहम्मद अस्करी, औन ज़ैदी और जौन ज़ैदी भी मौजूद रहे।

प्रयागराज का यह मातमी दृश्य इस बात का प्रतीक बना कि करबला की यादें आज भी उतनी ही गहरी हैं, जितनी सदियों पहले थीं। मोहर्रम की यह तारीख इंसानियत, कुर्बानी और हक़ के लिए डटकर खड़े होने का संदेश देती है।